अनेकरोगानुगतो बहुरोगषुरोगम:।
राजयक्ष्मा क्षय: शोषो रोगराडिति च स्मृत; ॥
अनेक रोगो से अनुगत( बहुत से रोग रोगी को लग जाते हैं , रोगों का समुह )
तथा बहुत से रोग जिसके आगे चलते हैं । क्षय , शोष और रोगराट् इसके पर्याय हैं ।
आयुर्वेद मे इस रोगके प्रारंभिक लक्षण--
पूर्वरुपं प्रतिश्यायो दौर्बल्यं दोषदर्शनम् । अदोषेष्वपि भावेषु काये बीभत्सदर्शनम् ॥
घृणित्वमश्नतश्चापि बलमांसपरिक्षय: । स्त्रीमद्यमांसप्रियता चावगुंठ्ने ॥
माक्षिकाघुणकेशानां तृष्णानां पतनानि च ।...... (चरक)
बार बार सर्दी जुकाम का होना, दुर्बलता, दोषरहित वस्तुओं मे भी दोष देखना , शरीर मे बीभत्स रुप देखना, घृणा करना, भोजन करने पर भी बल और मांस का क्षय हो जाना, स्त्रियों मे मांस भक्षण मे अधिक रुचि का हो जाना आदि ।
आयुर्वेद मे वर्णित इस रोग के ग्याराह लक्षण ( एकादश रुप )
- बार बार जुकाम लगना
- श्वास ( सांस लेने मे दिक्क्त )
- कास ( खांसी )
- अंसरुजा ( गर्दन और छाती के उपर भाग मे दर्द या बेचैनी )
- शिरोरुजा ( सिर मे दर्द )
- अरुचि ( भुख नही लगना )
- अतिसार
- विट्संग( कब्ज)
- वमन
- पार्श्वशुल
- ज्वर
इस रोग की आयुर्वेद् मे साध्य- असाध्यता--
बल युक्त और मांसयुक्त रोगी साध्यहोताहै । इसके विपरीत बलहीन और मांसहीन रोगी असाध्य होता है ।
आयुर्वेद मे इस रोग का चिकित्सा सुत्र--
बलवान रोगी मे पंचकर्म लाभदायक ।
आहार व्यवस्था--
बकरी का दुध, गाय का दुध, जौ के बने पदार्थ भात दलिया रोटी आदि
लावा, तीतर मुर्गा बटेर के मांस मे अम्ल रस यानि खट्टे पदार्थ डालकर खाना ।
पीपर जौ कुल्थी सौंठ अनार के रस और आंवले के साथ घी मे बना हुआ मांस ।
वारुणी ( सर्वोत्तम मद्य का सेवन करना )
लघुपंचमुल से सिद्द् दुग्ध और जल का सेवन ।
भुमि आमला नामक बुटी से सिद्द् किया हुआ जल हमेशा पीना ।
उत्तरभक्तिकम् -- भोजनोपरांत बलाघृत या रास्ना घृत या दशमुलाद्य्घ्हृत का पान करना ।
खट्टे अनार रस , या खटकल बुटी से युक्त मांसरस (सूप का प्रयोग करना )
औषध व्यवस्था----
- अश्वगंधा के सिद्द् किये हुए दुग्ध से निकाले घी को शर्करा और् दुध के साथ पीय़ें ।
- अश्वगंधा भस्म को शहद मे डालकर चांटे ।
- सितोपलादि चुर्ण का प्रयोग
- एलादि चुर्ण ( अं . हृ. )
- यवानी षाड्व (चरक)
- पंचगव्य
- च्यवनप्राश
- सह्र्सपुटी अभ्रक भस्म
- माणिक्यरस
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